पिछले हफ्ते संसद में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के द्वारा लगाए गए आपातकाल की बरसी मनाई गई। सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से इसकी जिस तरह निंदा की गई उससे ऐसा लगा कि उसने इस पर सही मायने में चिंता करने के बजाय राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश ज्यादा की है। आपातकाल पर एक किताब लिखने के बाद मुझसे कई बार इसे लेकर मेरे अनुभव के बारे में पूछा जाता है।
यह मुझे हमेशा अजीब लगता है कि जो लोग 26 जून को आपातकाल की बरसी मनाते हैं, मीडिया और मौलिक अधिकारों पर लगाए गए अंकुश पर दुख जताते हैं, उन्हें इस बात की शायद खबर नहीं है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आजादी पर आज भी काले बादल मंडरा रहे हैं।
उदाहरण के लिए लोकसभा के पिछले सत्र में संसद कवर करने वाले संवाददाताओं पर (आपातकाल के सिवा) इतनी बुरी तरह से कभी भी प्रतिबंध नहीं लगाए गए। तब और आज में फर्क सिर्फ काम करने के तरीके को लेकर है लेकिन मूल बात वही है।
शासन करने वाले सभी लोग नैरेटिव पर नियंत्रण चाहते हैं। लिबरल माहौल में पले-बढ़े होने के बावजूद इंदिरा गांधी ने इस बात का ऐलान कर दिया था कि वह मौलिक अधिकारों को सस्पेंड कर रही हैं और सेंसरशिप लागू कर रही हैं। बाद की सरकारों ने भी ढंके-छिपे तरीके से कमोवेश ऐसा ही किया।
मीडिया में फंडिंंग ताकतवर लोगों और समूहों की ओर से आना, आतंकवाद और भ्रष्टाचार से संबंधित कानून को गलत तरीके से लागू करना, मीडिया के दफ्तरों में छापेमारी करना और बिना तय प्रक्रिया का पालन करते हुए पत्रकारों को गिरफ्तार कर लेना, विदेशी पत्रकारों को वीजा न देना, किसी से बदला लेने के लिए सीबीआई और ईडी का इस्तेमाल करना मीडिया को रेगुलेट करने के कुछ सख्त तरीकों में शामिल है।
खबरों पर नियंत्रण और इनका प्रसार सूचना के सही स्रोतों को प्रतिबंधित करके भी प्रभावित किया जा सकता है।
ऐसे पत्रकार जो किसी दबाव के आगे झुकने के लिए तैयार नहीं हैं, उन्हें न्यूज़ इकट्ठा करने से रोकना, बैकग्राउंड ब्रीफिंग, इंटरव्यू, संसद और सरकारी दफ्तरों में प्रवेश आदि नहीं दिया जाता है। मीडिया को सरकारी दावों को लेकर जितना मंथन करना चाहिए वह उससे कम करता है। उदाहरण के लिए इस बार के चुनाव नतीजों को लेकर किस तरह बहुत सारे पत्रकार गलत साबित हो गए।
राजनेता मीडिया को दो श्रेणियों में रखते हैं। पहला- जो उनके साथ है और दूसरा जो उनके खिलाफ है। यह दुख की बात है कि पत्रकारिता में निष्पक्षता वाला रास्ता पूरी तरह खत्म हो गया है।
मुझे व्यक्तिगत तौर पर ऐसा लगता है कि सरकार जितनी मजबूत होगी वह राज्य और केंद्र में उतनी ही ज्यादा अहंकारी होगी, ऐसी सरकारें जो स्थिर नहीं होती उनमें मीडिया कहीं ज्यादा आजाद और निडर होता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इंदिरा गांधी मास अपील और पत्रकारों पर शक करने के मामले में एक जैसे हैं।
Lok Sabha MP @manickamtagore writes to the speaker, @ombirlakota to lift the curb imposed on accredited journalists, covering Parliament.
We also appeal to all Members of Parliament across the political parties to raise this issue with the @loksabhaspeaker @LokSabhaSectt pic.twitter.com/6WWDg7790v
कुछ लोग मेरी इस बात पर सवाल उठा सकते हैं और राजीव गांधी का उदाहरण दे सकते हैं जिन्होंने प्रचंड बहुमत होने के बाद भी बोफोर्स के मामले को नहीं दबाया और बाद में यही उनकी सरकार के गिरने की वजह बना। हालांकि ऐसा इस वजह से हो सकता है क्योंकि मीडिया को नियंत्रित करने वाले उनके लोग लापरवाह थे और उस दौरान कुछ अखबार भी पूरी तरह सरकार के खिलाफ बने रहे। साथ ही राजीव सरकार के दौरान ज्यादातर वक्त जो राष्ट्रपति (जैल सिंह) थे, वह भी उनसे विरोधी रुख रखने वाले व्यक्ति थे।
मुझे 1989 की बात याद आती है, जब राजीव गांधी के एक सलाहकार ने विजयपत सिंघानिया को उनके द्वारा शुरू किए गए नए अखबार इंडियन पोस्ट को बंद करने का हुकुम सुनाया। ऐसा इस वजह से हुआ था क्योंकि प्रधानमंत्री के एक करीबी दोस्त के खिलाफ एक लीड स्टोरी इस अखबार में छपी थी। उसे समय मैं वहीं काम करती थी।
इससे पहले उस समय के एडिटर इन चीफ विनोद मेहता को ऐसे लोगों की लिस्ट दी गई थी जिनके बारे में नेगेटिव नहीं लिखा जाना था, इस लिस्ट को उन्होंने मेरे साथ शेयर किया था।
पिछली सरकारें प्रेस की आजादी के लिए कहीं ज्यादा सहिष्णु थीं, उनमें मोरारजी देसाई और देवेगौड़ा की सरकार का नाम भी शामिल है। उनकी सोच थी कि लोगों को उनके मुताबिक काम करने देना चाहिए। उनके पास स्पष्ट बहुमत भी नहीं था और उनके ही अंदर के कई लोग उन्हें गिराने की साजिश रच रहे थे।
आपातकाल के दौरान हिम्मत दिखाने वाले इंडियन एक्सप्रेस अखबार जैसे कुछ अपवाद को छोड़ कर पूरी तरह से सेंसरशिप लागू थी। इसके बावजूद इंदिरा गांधी 1977 का चुनाव हार गई थीं, क्योंकि उनके शासनकाल से जुड़ी खबरें लोगों की आपसी बातचीत के जरिए ही पूरे देश भर में फैल गई थीं।
2024 में जब सोशल मीडिया का जमाना है, परंपरागत मीडिया में ‘गोदी’ और ‘पप्पू’ पत्रकार जैसे शब्दों का इस्तेमाल होता है, लेकिन सरकार के प्रोपेगेंडा का सबसे बेहतर जवाब यूटयूबर्स और इन्फ्लुएंसर्स से मिला। इनमें से कुछ तो ऐसे थे जिन्होंने ट्रेवल राइटर या बॉडीबिल्डर के रूप में शुरुआत की थी। ऐसे नए आए लोगों ने लाखों दर्शकों को अपनी ओर खींचा और व्हाट्सएप के जरिए मैसेज वायरल किए जाने के अभियान को बेअसर कर दिया।
मोदी 3.0 की सरकार को आपातकाल से सीखना चाहिए कि आप नैरेटिव को कंट्रोल नहीं कर सकते। विशेषकर 21वीं सदी में। इंटरनेट पर निगरानी रखने के लिए बनाए गए नए आईटी कानून जैसे कदम इसका जवाब नहीं हो सकते। बल्कि, रविंद्र नाथ टैगोर की कविता ‘जहां मन भय-मुक्त हो’ सबसे अच्छी सलाह है।
अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने कुछ मीडिया सलाहकारों को नियंत्रित करने में कामयाब रहे तो इससे उनकी छवि एक मजबूत प्रधानमंत्री और एक उदार शासक वाली बनेगी। इंदिरा गांधी ने आपातकाल के बाद मिली हार से इस बात को समझ लिया था।
पश्चिम बंगाल में एक महिला और उसके साथी को कथित तौर पर टीएमसी नेता तजमुल उर्फ जेसीबी ने सार्वजनिक रूप से पीटा। टीएमसी विधायक ने महिला के अवैध संबंधों का हवाला देते हुए घटना को सही ठहराया, लेकिन बाद में यह कहा कि सजा का तरीका कुछ ज्यादा ही आक्रामक था। पुलिस ने जेसीबी को गिरफ्तार कर लिया है और मामले की जांच कर रही है।