Lok Sabha Election 2024: जब से कलकत्ता कोलकाता हुआ, कम पड़ती गईं नौकरियां; बंगाल में पलायन कितना बड़ा मुद्दा? – lok … – दैनिक जागरण (Dainik Jagran)

Spread the love

West Bengal Lok Sabha Election 2024 बंगाल के मालदा और मुर्शिदाबाद में तीसरे चरण में मतदान होगा जहां राज्य में सर्वाधिक पलायन होता है। घटता रोजगार यहां एक बड़ा मुद्दा है क्योंकि देश के कुल औद्योगिक उत्पादन में 30% से ज्यादा हिस्सेदारी रखने वाले बंगाल में अब यह मात्र छह फीसदी रह गई है। ऐसे में यहां के लोग पलायन नहीं करें तो क्या करें?
विनय मिश्र, मालदा। जब से कलकत्ता कोलकाता हुआ, नौकरियां कम पड़ती गईं। पूरे बंगाल का यही हाल है। सौ-पचास साल पहले की बात करते हैं। कमाने कलकत्ता चले गए पतियों के वियोग में कलपती हुई भोजपुरिया स्त्रियां रात और भिनसारे जो गीत गाती थीं, उन्हें पूरबी कहा गया। कमाने जाने के लिए कलकत्ता सबसे अच्छी जगह थी। वह शहर भोजपुरी बेल्ट से पूरब में था और तब के बंगाल की बात कुछ और थी।

loksabha election banner

अब बंगाल से कर्मभूमि एक्सप्रेस जैसी ट्रेनें खचाखच भरी हुई दक्षिण-पश्चिम जाती हैं। एक करोड़ से अधिक बंगाली ‘माइग्रेंट लेबर’ बनकर स्थायी और अस्थायी रूप से बंगाल छोड़ चुके हैं। बांग्ला में इन्हें ‘परियाई श्रमिक’ कहते हैं। इनमें से अधिसंख्य मालदा और मुर्शिदाबाद के हैं। लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण में यहीं मतदान होगा। पलायन की पंचायत से लेकर लोकसभा चुनाव तक चर्चा जरूर होती है, लेकिन ज्यादातर वोट पड़ते हैं हिंदू-मुस्लिम और केंद्र-राज्य के चक्कर में।

बंगाल के लोगों का दुख

बिहार के लोग दुख प्रकट करते हैं कि देश के विभिन्न शहरों में जब बड़ी दुर्घटनाएं-आपदाएं आती हैं, तो यहां के किसी न किसी जिले के व्यक्ति के मरने-घायल होने की खबर जरूर आती है। अब यही हाल बंगाल का है। मिजोरम में निर्माणाधीन पुल गिरा। 23 निर्माण श्रमिकों की जान गई। सब मालदा के थे। छत्तीसगढ़ के धमतरी में दुर्घटना हुई, बंगाल के तीन श्रमिकों की मौत हो गई। मिजोरम में खदान ढहने से बंगाल के पांच श्रमिकों की मौत हुई। पटना में नाला निर्माण के दौरान दम घुटने से बंगाल के दो श्रमिक मरे। यह पिछले दिनों की खबरें हैं।
ये खबरें मालदा और मुर्शिदाबाद के गांवों में कभी न भूलने वाला दर्द लेकर आती हैं। कुछ दिनों तक मोहल्ले के लोग किसी खास घर से देर रात तक रोती-बिलखती स्त्रियों को सुनते हैं, फिर उसी मोहल्ले से कोई और युवा बैग लेकर कमाने भिन्न राज्य निकल रहा होता है। उसकी पत्नी-मां दुग्गा-दुग्गा या खुदा हाफिज कहते हुए आशंकित होती है। बगल के घर की विधवा का दुख उनसे देखा नहीं जाता, लेकिन अपने घर की हालत का क्या करें…?

मातृभूमि से दूर ले जाती कर्मभूमि

बंगाल की मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जब रेल मंत्री थीं, तब उन्होंने एक ट्रेन शुरू की थी। नाम है कर्मभूमि एक्सप्रेस। कामाख्या से मालदा होते हुए मुंबई जाती है। फरक्का और मालदा टाउन से नई दिल्ली की कई ट्रेनें हैं। गरीब और मध्यवर्ग के युवा इन्हीं रेलगाड़ियों से मातृभूमि से दूर अपनी कर्मभूमि जाते हैं। जनरल बोगियां भरी रहती हैं।
कोई पुराना श्रमिक नए श्रमिकों की टोली लेकर मुंबई-दिल्ली के सफर पर रहता है। समझाता जाता है। वहां कैसे रहना है, क्या करना है। अपनी छोटी सफलताओं और परेशानियों की कहानी सुनाकर प्रेरित करता है। सुझाव भी देता है कि घर से लाया हुआ खाना एक बार में खत्म नहीं करना है। अब लंबा सफर है। ट्रेन में तीन दिन लगेंगे। फोन बजते हैं। ट्रेन मिल गई। सीट मिल गई। तुम लोग ठीक से रहना। हम वहां जाकर फोन करेंगे। रोज करेंगे। जल्द आएंगे।
बांग्ला के ये वाक्य इस कंपार्टमेंट से उस कंपार्टमेंट तक सफर करते हैं। दूर गांव में कई मां उदास होती हैं। बाप चिंता और उम्मीद की मंझधार में फंसा हुआ सांत्वना देता है। भाई अगले वर्ष खुद यहां से निकल जाने का मन बना रहा होता है। पत्नी को हिंदी फिल्मों के विदाई वाले गाने याद आते हैं। बंगाल में कोई भिखारी ठाकुर आज बिदेसिया रचे, तो उसके लिए प्लाट भी हैं और पात्र भी।

सुवेंदु दुख दूर करने की कर रहे बात

बंगाल के नेता प्रतिपक्ष व भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी अपनी सभाओं में कहते हैं कि सत्ता में आने पर वह सबसे पहले पलायन के दुख को दूर करेंगे। बंगाल की स्त्रियों का यह दुख देखा नहीं जाता है। मालदा की अपनी सभाओं में ममता बनर्जी कहती रही हैं कि यह बंगाल का चुनाव नहीं है। मेरी जवाबदेही पर बात नहीं होगी। केंद्र फंड नहीं दे रहा है। सौ दिन के काम का पैसा बंद है। मोदी को पिछले 10 साल के काम का हिसाब देना चाहिए। बेरोजगारी बढ़ी है। सीएए लागू नहीं होने देंगे। एनआरसी लागू हुआ तो कैंप ढहा देंगे। फिर वह लक्ष्मी भंडार और अन्य योजनाओं को गिनाने लगतीं। औद्योगिक विकास पर कुछ नहीं कहतीं।
ये भी पढ़ें- ‘400 पार भाजपा की नहीं, देश की जरूरत’, बोले अखिल भारतीय इमाम संगठन के अध्यक्ष; RSS और CAA-NRC पर भी रखे विचार, पढ़ें खास बातचीत

आंसू बहाने वालों की कमी नहीं

ममता सरकार ने कर्मसाथी योजना शुरू की है, जो दूसरे राज्यों में काम करने वाले कामगारों के संकट में पड़ने पर मदद के लिए है। जान जाने पर परिवार को मुआवजा से लेकर शव लाने और अंतिम संस्कार करने तक का खर्च इस योजना के माध्यम से दिया जाता है। हेल्प सेंटर हैं। संकट में पड़ने पर अधिकारी मदद करते हैं। वामपंथी दलों, जिनके शासनकाल में बंगाल से पलायन शुरू हुआ, ने इनके लिए यूनियन बना दी है।
सीटू संबद्ध इस यूनियन का नाम है वेस्ट बंगाल माइग्रेंट वर्कर्स यूनियन। संघर्ष की बात करते हैं। लौटाने की बात करते हैं। भाजपा पलायन को रोकने के लिए राज्य में नए तरीके से औद्योगिक विकास की बात करती है। एनजीओ काम कर रहे हैं। विद्वान अध्ययन कर रहे हैं। बात बहुत होती है। स्थिति यह है कि गांव में कोई काम नहीं है। कालियाचक, मानिकचक, रतुआ, हरिश्चंद्रपुर, चांचल के गांवों में किसी से पूछ लीजिए यही कहेगा। गांव में मूर्ति बनकर बैठे तो नहीं रह सकते।
हर गांव का कोई न कोई बाहर है। वह जब भी आता है, कुछ नए युवकों को लेकर चला जाता है। वहां काम सीखते हैं और कमाने लगते हैं। बीस साल से यही हो रहा है। इसी भीड़ में शामिल होकर सीमा पार से घुस आया बांग्लादेशी भी भारत में ठिकाना बना लेता है। पहचान मुश्किल है। गांव-गांव में पहचान बनाने और बदलने की दुकानें खुली हुई हैं।
ये भी पढ़ें- Lok Sabha Election: आज थम जाएगा तीसरे चरण का चुनाव प्रचार, उम्मीदवार घर-घर देंगे दस्तक; यहां पड़ेंगे वोट

एक करोड़ से अधिक प्रवासी

अध्ययन बताते हैं कि 2001 में वाममोर्चा के शासनकाल में पलायन शुरू हुआ। बाद में हड़ताल, फैक्ट्रियों की तालाबंदी, सिंगूर कांड, नंदीग्राम कांड जूट मिलों की बदहाली ने इसे बढ़ाया। 2001 से 2011 के बीच एक लाख श्रमिक बंगाल छोड़कर बाहर गए थे। अगले 10 साल में यह संख्या कई गुना बढ़ गई। महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत के राज्यों की बेहतरीन दैनिक आमदनी ने उन्हें उत्साहित किया।
इन मजदूरों के लिए काम कर रही सीटू की यूनियन ने एक साल पहले गांव-गांव में सर्वे कर 80 लाख से अधिक प्रवासी मजदूर होने का दावा किया था। अब तो यह आंकड़ा करोड़ पार कर गया होगा। पलायन इतना तेज है कि कोई भी सर्वे कुछ दिन के बाद गलत लगने लगता है।

नकली नोट का प्रवेश द्वार है मालदा

आरबीआई का अनुमान है कि भारत में जितने भी नकली नोट पाए जाते हैं, उनमें से 80 प्रतिशत मालदा के रास्ते भारत में पहुंचाए गए होते हैं। रेल नेटवर्क पर मालदा भारत के सभी प्रमुख शहरों से जुड़ा है। बांग्लादेश की सीमा पर बसे गांव में भारत की तरफ शाम को युवक खड़े रहते हैं। तार वाले बाड़ के उस पार से ईंट के आकार के पैकेट इधर उछाले जाते हैं। इधर वाले युवक उठाते हैं। मोबाइल कान में लगाए-लगाए मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हैं। फिर रिले रेस शुरू होती है। एक-एक किलोमीटर पर कुरियर बदल जाता है।
ये भी पढ़ें- Lok Sabha Election: वोटिंग के दिन तपिश बनेगी चुनौती, मतदान किया तो साड़ी, जेवर और एलपीजी गैस पर मिलेगी छूट
30 मिनट से कम समय में वह पैकेट फरक्का रेल स्टेशन पर पहुंच जाता है। उससे भी कम समय में कालियाचक बस स्टैंड पर। जो युवक बाहर नहीं जाते, वे नकली नोटों के कुरियर का काम करते हैं। पकड़े भी वही जाते हैं। माफिया राजनीतिक दलों से जुड़े हैं। जाहिर है ऐसे लोगों की पसंद हमेशा सत्तारूढ़ दल ही होता है।

यहां कुछ मीठा तो वह आम है

आपको मालदा आम याद है। आम के सीजन में बाजार में यह नाम अक्सर सुनने को मिलता है। आम मालदा का सबसे प्रसिद्ध उत्पाद है। यहां मालदा का लंगड़ा, गुत्थी, हिमसागर, फजली, गोपालभोग, लक्ष्मणभोग और अश्विना जैसी वेराइटी मिलेंगी। देश-विदेश में इनका नाम है। इंग्लिशबाजार, पुराना मालदा, मानिकचक, रतुआ और हरिश्चंद्रपुर में आम के बागान हैं। लगभग 30 हजार हेक्टेयर में पेड़ लगे हैं। यहां अभी कुछ मीठा है, तो बस आम है।
ये भी पढ़ें- Lok Sabha Election: कश्मीरी हिंदुओं की वापसी का वादा करने वाले चुनाव में सुध लेने भी नहीं पहुंचे, भाजपा ने कश्मीर में नहीं उतारे हैं प्रत्याशी

source

Previous post Lok Sabha Election | Spiritual Leaders On Prime Minister Narendra Modi's Visit To Ayodhya | News18 – News18
Next post PM Modi Ram mandir Ayodhya: भगवान राम की शरण में पीएम मोदी, अयोध्या राम मंदिर से दर्शन LIVE – IndiaTimes

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *