18वीं लोकसभा के चुनाव में पहले चरण का मतदान कुछ फीका रहा। फीका इसलिए क्योंकि यह लगभग सभी जगह पिछली लोकसभा के मतदान प्रतिशत से दस प्रतिशत तक कम रहा। अलग-अलग राजनीतिक पार्टियाँ, नेता, कार्यकर्ता और आम आदमी भी इस कम मतदान प्रतिशत पर अपना-अपना अंदाज़ा लगाए जा रहे हैं।
कोई कह रहा है इस कम मतदान से भाजपा को नुक़सान हो सकता है। कम मतदान का सबसे अहम तर्क यह माना जा रहा है कि पहली बार लोकसभा चुनाव का परिणाम लगभग तय माना जा रहा है। इसलिए लोगों में कोई उत्साह नहीं है और यही वजह है मतदान कम होने का।
कम वोटिंग परसेंटेज से भाजपा के गलियारों में चिंता ज़रूर नज़र आ रही है। हालाँकि, लगता नहीं है कि इसमें किसी पार्टी का बड़ा नुक़सान या किसी का फ़ायदा हो सकता है। वैसे भी अब वोट देने का ट्रेन्ड काफ़ी बदल चुका है। पहले गाँव के गाँव किसी एक पार्टी को वोट डाल आते थे। पूरा परिवार किसी एक ही पार्टी को वोट दिया करता था।
अब ऐसा नहीं है। भाई- भाई और पति-पत्नी भी अलग-अलग राजनीतिक दलों को वोट देते हैं। यही वजह है कि पहले वोट परसेंटेज से चुनाव परिणाम का सटीक अंदाज़ा लगा लिया जाता था, लेकिन अब मत का बिखराव इतना ज़्यादा हो चुका है कि अंदाज़ा लगाना मुश्किल हो गया है।
हाँ, इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि चुनाव या मतदान को लेकर लोगों में किसी तरह का उत्साह नहीं है। उत्साह नहीं है इसका मतलब यह है कि 2014 और 2019 की तरह कोई लहर इस बार नहीं है।
कुछ विशेषज्ञ और विश्लेषक यह ज़रूर कह रहे हैं कि कांग्रेस को बहुत ज़्यादा मेहनत करनी थी। सही दिशा में प्रयास करने थे। अगर ऐसा होता तो परिणाम जो भी होता लेकिन चुनाव मैदान में एक तरह का उत्साह ज़रूर आ जाता।
अफ़सोस कि कांग्रेस ने उतनी मेहनत नहीं की, जितनी वह कर सकती थी या उसे करनी चाहिए थे। आख़िर लोकतंत्र का पर्व इस तरह फीका नहीं होना चाहिए। उत्साह की कमी ने पहले चरण के मतदान का एक रहस्य यह भी उजागर किया है कि इस बार युवाओं का मतदान प्रतिशत काफ़ी कम रहा है।
वैसे युवाओं को प्राय: भाजपा और मोदी के पक्ष में माना जाता है। युवाओं के कम मतदान का मतलब यह तो है ही कि इस बार भाजपा जिन सीटों पर भी जीतेगी उन पर जीत का अंतर काफ़ी कम रहने वाला है।
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